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सना॑ च सोम॒ जेषि॑ च॒ पव॑मान॒ महि॒ श्रव॑: । अथा॑ नो॒ वस्य॑सस्कृधि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sanā ca soma jeṣi ca pavamāna mahi śravaḥ | athā no vasyasas kṛdhi ||

पद पाठ

सना॑ । च॒ । सो॒म॒ । जेषि॑ । च॒ । पव॑मान । महि॑ । श्रवः॑ । अथ॑ । नः॒ । वस्य॑सः । कृ॒धि॒ ॥ ९.४.१

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:4» मन्त्र:1 | अष्टक:6» अध्याय:7» वर्ग:22» मन्त्र:1 | मण्डल:9» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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आर्यमुनि

अब उक्त परमात्मा से अभ्युदय के लिये विजय और आत्मसुख के लिये निःश्रेयस की प्रार्थना वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (सोम) हे सौम्यस्वभावयुक्त परमात्मन् ! (महि, श्रवः) सर्वोपरिदाता तथा (च) और  (पवमान) पवित्र (जेषि) पापियों का नाश करो (च) किन्तु सदा के लिये (नः) हमको (वस्यसस्कृधि) कल्याण देकर (सन) हमारी रक्षा करें ॥१॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों के दाता हैं। जिन लोगों को अधिकारी समझते हैं, उनको अभ्युदय नाना प्रकार के ऐश्वर्य्य प्रदान करते हैं और जिसको मोक्ष का अधिकारी समझते हैं, उसको मोक्षसुख प्रदान करते हैं। जो मन्त्र में जेषि यह शब्द है, इसके अर्थ परमात्मा की जीत को बोधन नहीं करते, किन्तु तदनुयायियों की जीत को बोधन करते हैं। क्योंकि परमात्मा तो सदा ही विजयी है। वस्तुतः न उसका कोई शत्रु और न उसका कोई मित्र है। जो सत्कर्म्मी पुरुष हैं, वे ही उसके मित्र कहे जाते हैं और जो असत्कर्म्मी हैं, उन में शत्रुभाव आरोपित किया जाता है। वास्तव में ये दोनों भाव मनुष्यकल्पित हैं। ईश्वर सदा सबके लिये समदर्शी है ॥१॥
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आर्यमुनि

अथाभ्युदयाय विजयाय आत्मसुखाय च निःश्रेयसं वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (सोम) हे सौम्यस्वभावयुक्त परमात्मन् ! (महि, श्रवः) सर्वतो दातृतमः (च) तथा च (पवमान) पवित्र ! त्वं (जेषि) पापिनो जय (च) किञ्च सदा (नः) अस्मभ्यं (वस्यसः, कृधि) कल्याणं देहि (सन) नो भज ॥१॥